Tuesday, March 29, 2011

टीस अब बहने लगी है - श्रीमती रजनी मोरवाल


आँसुओं की बाँह थामे टीस अब बहने लगी है |
दर्द की किरचन ज़िगर को पार कर चुभने लगी है |

जिंदगी के इस तरफ से उस तरफ की दूरियाँ 
फ़ासिले   कम कर न पाई वक़्त की मजबूरियाँ ,
सब्र की साँसें दरकते ज़िस्म में थमने लगी है |

है सभी चेहरों पे चेहरा, डर कहीं पर औ" हया है 
ये कहानी हर किसी की है मगर मौंजू नया है ,
ओढ़कर झूठे नकाबों में हँसी छलने  लगी है |

देह की मंडी बज़ारों की कतारों में लगी है 
चाहतों के नाम पर अब हो रही देखो ठगी है ,
अब नयी ये खेप साँझे सोच में बिकने लगी है |  

Monday, March 28, 2011

आधी हकीकत - आधा फ़साना

चैटिंग के टाइम पर आना गोरी नेट पर
वाट जोह रहा है बैठा बैठा तेरा दीवाना

ना कभी इनकार करके दिल को तोड़ना
प्यार भरे स्क्रैप करके ये रिश्ता निभाना

जबसे तुम्हें जोड़ा है दिल ने ये सोचा है
तुम भी हमको चाहती ये मिलके बताना

प्रशंसापत्र में लिखे वो भाव सारे सच्चे है
मिलके अपने मनभावो को हमको बताना

आँखों से दूरी भले लगती तुम पास सदा
रिश्ता पर लगता ये खूब जाना पहचाना

दुनिया ये ऑरकुट की हमको लगे सच्ची
या फिर आधी हकीकत है आधा फ़साना

दो दिलो की बात


ना कोई आह ना सिसकना
आँसू की कोई बूँद भी नही
न ही तूफान कोई मन में
नहीं सबसे प्रभावी शब्द हैं
वस ह्रदय से निकली गूँज
यही है एक साधारण सच
**********************************
हक़ीक़त को एक नज़र
देखकर हम कर रहे हैं
एक करें कतरा- कतरा शुरुआत
टूटे जहाज के मलबे यहाँ
रहता है आश्वासन यही
करलो दो दिलों का परिणय

क्या मुक्त हो पाओगे? - श्रीमती रजनी मोरवाल





तुम पुरुष हो,
तुम्हे बंधन  नहीं स्वीकार्य ?
चाहते हो मुक्त होना
मेरी इच्छाओं से ,
भावनाओं से,
और
अपेक्षाओं से |
मैनें तो तुम्हें मुक्त ही किया है ,
अपनी
अभिलाषाओं से
आकांक्षाओं से
और
कामनाओं से ,
परन्तु..........
तुम ही सदैव
आश्रित रहे
मुझ पर............
लिपटे रहे  मेरे
नारीत्व से 
ममत्व से 
और
आस्तित्व से |
क्या तुम मुक्त कर पाओगे
स्वयं को 
मेरी आत्मा से
देह से 
और
नेह से ?
क्या मुक्त  हो पाओगे....................?

Wednesday, March 23, 2011

भगत सिंह का अंतिम पत्र - 22 मार्च,1931





22 मार्च,1931

साथियो,

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता. लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ, कि मैं क़ैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता.



मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है - इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज़ नहीं हो सकता.



आज मेरी कमज़ोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं. अगर मैं फाँसी से बच गया तो वो ज़ाहिर हो जाएँगी और क्रांति का प्रतीक-चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए. लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिंदुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरज़ू किया करेंगी और देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी.



हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका. अगर स्वतंत्र, ज़िंदा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता.



इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे ख़ुद पर बहुत गर्व है. अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है. कामना है कि यह और नज़दीक हो जाए.



आपका साथी,

भगत सिंह
 
 
यह चित्र और पत्र नेट से लिया गया है. जिस किसी ने इसे वहा डाला है, आभार.

Sunday, March 20, 2011

तुझे छू भी नहीं पाती हूँ - श्रीमती रजनी मोरवाल

तुझे छू भी नहीं पाती हूँ


मैं चलते-चलते मैं यह किस मोड़ तक चली आई

कि पीछे मुड़कर देखूं तो

तेरी परछाईं भी बुझते हुए

चरागों -सी नज़र आती है


हाथ ग़र बढाऊँ तो

तुझे छू भी नहीं पाती हूँ

तुझ तक लौटना चाहूँ तो

कोई राह मुझे मिलती ही नहीं..

कि इन लम्बी काली राहों से निकलते हैं

कई और सिरे,

जिन पर चलकर मैं इस भीड़ मैं खो सी जाती हूँ

कई बार तो साँसे हलक मैं फंसकर दर्द कि हद तक

कराहती हुई रह जाती है


कुछ उलझे हुए रास्तों की दूरी मुझे डराती है,

मेरे पैरों के नीचे से मेरी ज़मीन सरकती जाती है.........

उनमें से एक सिरा है सीधा -सा सपाट -सा ....

मगर उस पर चलकर तुझ तक आऊं ?

क़ि ये भी मेरी फ़ितरत को गवारा नहीं...

तो हर शाम

उस पुराने किले की मीनार को निहारा करती हूँ

जो बहुत ऊँचा है और फ़लक तक फैला रहता है

बस......................

मेरी सोच वहीँ जाकर अटक सी जाती है

किसी पतंग क़ि मानिंद..

बेजान बिना मकसद और

तन्हा -तन्हा अपने आप से बातें करती हुई,

जहाँ से कोई नयी राह निकलती ही नहीं


Friday, March 18, 2011

लो होली आई है - श्रीमती रजनी मोरवाल



                     लो होली आई है

फगुआ के मौसम में मस्ती-सी छाई है |
                    मतवारी बोली है
                    सतरंगी चोली है,
                    यौवन की चुनर भी
                    रंगों में घोली है,
गालों पर है गुलाल ऑंखें शरमाई है |  
                  अंगों में अंगराग
                  मन मेरा फाग-फाग, 
                 जंगल में बिखरी है
                  टेसू की आग-आग,
ऋतुएँ भी भर-भर के पिचकारी लाई है | 
                 होली के आंगन में
                 रंगों के छाजन में,
                 सुध अपनी भूल गई
                 डूब गई साजन  में,
चुप-चुप के अंखियों में प्रीति उतर आई है | 

Thursday, March 17, 2011

अकेलापन - श्रीमती रजनी मोरवाल


अकेलापन

ये अकेलापन हमेशा सालता रहता मुझे |

मौन कमरों के झरोखे
और खिड़की चुप हुई,
पीर आँखों से बरसती
चुभ रही दिल मैं सुई,

एक वीराना हमेशा पालता रहता मुझे |

भीड़ फैली हर तरफ है
मैं अकेली हूँ खड़ी,
ज्यों समुन्दर के किनारे
पर कोई कश्ती पड़ी,

किन्तु गीलापन हमेशा टालता रहता मुझे |

प्रीति की क्यारी सहेजूँ
कंटकों की बाड़ियों में,
मन उलझकर रह गया है
विरह की इन झाड़ियों में

कौन सपनों में हमेशा ढालता रहता मुझे ?

Sunday, March 13, 2011

गुनाह -आशा गुप्ता



मेरे ब्लोग पर आज लेखिका के रूप मे आशा गुप्ता जुड रही हैं. आप एक अभिनेत्री, लेखिका और  निर्देशक के रूप मे अंडमान निकोबार मे अपनी विशेष पहचान रखती हैं. मैं अपने ब्लोग पर उनका स्वागत करता हूँ. 






फ़ोन की घंटी की लगातार आवाज सुनकर मैंने हाथ का काम छोड़ कर फ़ोन उठाया "हैलो", दूसरी ओर ज़ारा थी. ज़ारा और मै कालेज के जमाने से गहरे दोस्त थे. बी ए की पढाई ख़त्म होते ही मेरे अम्मी-अब्बू ने जहाँ अच्छा रिश्ता देख कर मेरा निकाह करवा दिया था, वहीँ ज़ारा अब तक कुंवारी थी. अब तो मेरे निकाह को भी चार साल हो गए. आदत-लहजे में हम दोनों एक-दूसरे के उलट ही थे, पर इससे हमारी दोस्ती में कोई फर्क नहीं आया था. हम एक-दूसरे के घर बराबर आया-जाया करते थे. उसने कहा-"रुना एक जरुरी बात कहनी है". मैंने कहा-"हाँ बोल न". वो बोली-"परसों मेरी शादी है कोर्ट में". "क्या"- मै चीख पड़ी.ये मेरे लिए बड़े ही हैरतअंगेज बात थी, क्यूंकि अभी पिछले हफ्ते ही तो हम मिले थे, तब उसने ऐसा कुछ जिक्र ही नहीं किया था. मैंने पूछा- "मजाक कर रही हो?" उसने ठन्डे लहजे में जवाब दिया "नहीं".

मेरी हैरानी बढती ही जा रही थी/ मैंने जानना चाहा कि आखिर वो लड़का है कौन, जिसके लिए उसने इतनी जल्दी हाँ कर दी. उसने कहा-"तुम जानती हो उसे". "किसकी बात कर रही हो" मैंने शंकित होकर पूछा. आवाज़ आई "अमान की". "अमान!!?" मेरी हैरानी का ठिकाना न था -"ये कैसे हो सकता है, तुम तो उसे बिलकुल पसंद नहीं करती थी?" उसने कहा -"हाँ, पर अब मै उससे शादी कर रही हूँ". मैंने शंका ज़ाहिर की कि कहीं उसने कुछ 'गलत' तो नहीं किया. पर उसने इन बातो को सिरे से ख़ारिज करते हुए मुझे दावत दे कर फ़ोन रख दिया. इस बातचीत से मेरा दिल बिलकुल ही उखड चुका था. दिल पांच साल पहले की यादों में खो गया.
 
उन दिनों अमान हमारे साथ ही पढता था. फ़ाइनल इयर में आने पर हमें स्टडी टूर के लिए बैंगलौर जाना था. हम सब चूँकि पहली बार इस ज़ज़ीरे से बाहर जा रहे थे, इसलिए बहुत जायदा रोमांचित थे. २० दिन के इस टूर पर हमने काफी मज़े किये. हमेशा हँसना-हँसाना लगा रहता था. टूर के दौरान ही अमान को ज़ारा अच्छी लगने लगी थी. उसने मुझ से इस बात का जिक्र भी किया. मैंने उसे समझाते हुए कहा कि पहले वह अपनी पढाई ख़त्म करके, अपने पैरों पर खड़ा हो जाये, फिर सोचना. पर सच कहूँ तो ज़ारा कि आदतों को लेकर मै हमेशा शंका में ही रहती थी, क्योंकि ज़ारा की फितरत में शोखियत बहुत थी. हर किसी से बड़े ही दिलफैक अंदाज़ में बात किया करती थी, जिसकी वजह से उसके आसपास मनचलों की भीड़ लगी रहती थी. उसकी इन्ही आदतों के कारण मै अक्सर उसे उंच-नीच समझाया करती थी/पर उसने मेरी बातों को कभी अहमियत नहीं दी. न जाने उस पर किस चीज़ का नशा सा छाया रहता था.

एक दिन मौका देख कर अमान ने ज़ारा से अपने दिल का हाल बयां कर दिया और ये भी कहा की वह उससे निकाह करना चाहता है. ज़ारा ने उसकी सोच को नज़रान्दाज़ कर, सीधे-सीधे मना कर दिया की वह उससे तो कभी निकाह नहीं करेगी. बात शायद आई-गई हो जाती लेकिन पढाई पूरी हो जाने के बाद भी अमान ज़ारा को मनाने की कोशिश करता रहा और हर बार ज़ारा का जवाब इनकार में ही होता. मैंने और अमान के दोस्तों ने भी मिल कर ज़ारा को समझाना चाहा पर वह नहीं मानी. इस बीच मेरी शादी हो गई. धीरे-धीरे पांच साल बीत गए, अमान अब भी ज़ारा के लिए पागल था/ अब तो उसकी नौकरी भी लग गई थी.

 डोरबेल की आवाज़ सुनकर मै ख्यालों की दुनिया से बाहर निकल आई. उठ कर दरवाज़ा खोला. सामने मेरे मियां जी थे. मेरे माथे पर शिकन देख पूछा -"क्या बात है नाजो परेशां नज़र आ रही हो?" मैंने उन्हें ज़ारा की शादी की बात बता दी. सुन कर वे भी उतने ही हैरान हुए जितना की मै हुई थी -"लेकिन ऐसे, अचानक?" मैंने भी हैरानगी ज़ाहिर की. वे बोले -"चलो कोई बात नहीं, आखिर राज़ी तो हो गई अमान से शादी करने को". मैंने टोकते हुए कहा -" न जाने क्यों मुझे इस बात की जरा भी ख़ुशी नहीं". "पर तुम तो यही चाहती थी न" उन्होंने कहा और फ्रेश होने के लिए बाथरूम की ओर बढ़ गए.

हाँ, ये सच है की मै यही चाहती थी कि ज़ारा अमान से शादी कर ले क्योंकि अमान उसे दिलो-जान से चाहता था और उसका घर-बार भी अच्छा था. इसके बावजूद आज जब ज़ारा उसी अमान से शादी करने जा रही है तो मुझे ठीक नहीं लग रहा था. खैर से, ज़ारा कि शादी हो गई और मै नहीं जा पाई. सच पूछो तो मैंने जाने कि कोशिश भी नहीं की. धीरे-धीरे वक़्त बीतने लगा. मै फिर से अपनी दुनिया में उलझ गई. 

एक दिन अचानक बाज़ार में खरीदारी करते वक़्त मेरी मुलाक़ात अमान से हो गई. कैसी तो हालत बना रखी थी उसने, बिखरे बाल, उदास चेहरा और आँखों में वीरानी सी. मेरे हालचाल पूछने पर, उसने बताया की ज़ारा के बेटा हुआ है. अब वो अपनी अम्मी के घर पर ही है. इसके आगे मै कुछ समझ पाती, वो जा चुका था. इस जानकारी से मेरे पैरों तले जैसे ज़मीन ही नहीं रही. मेरा सर चकराने लगा. मैंने तुरंत ओटो किया और घर की ओर चल पड़ी. अमान की उदासी का कारण अब मुझे समझ में आ रहा था. आखिरकार इस लड़की ने अपनी हरकतों को रंग दे ही दिया. सारा मामला समझ में आते ही मेरा दिल गुस्से से भर उठा. रास्ते बहर मै यही सोच रही थी कि ज़ारा कि शादी को तो अभी सिर्फ पांच ही महीने हुए है, फिर ये बच्चा? तो क्या इसलिए उसने अमान को शतरंज का मोहरा बनाया? ऐसे कई सवाल थे जिनका जवाब मै चाहती थी.

सो दूसरे ही दिन मैंने बाज़ार से उसके बच्चे के लिए सूट ख़रीदा और ज़ारा से मिलने उसके घर पहुँच गई.मुझे देख कर उसे बड़ी खुशी हुई पर उसके चेहरे पर पशेमानी की कोई भी लकीर मुझे नज़र नहीं आई. मौका पाकर मैंने उससे पहला सवाल यही किया कि उसने ऐसा क्यों किया? वो बोली -"इसके सिवाय मेरे पास कोई चारा नहीं था"  "अब?" मैंने जानना चाहा. "अमान ने मुझ से रिश्ता ख़त्म कर दिया है, क्यूंकि यह बच्चा उसका नहीं है और सच कहूँ तो मुझे भी उसकी कोई परवाह नहीं". उसके इस बयान से मेरा दिल नफरत से भर उठा. बस इतना ही कह पाई "ज़ारा अगर शादी से पहले ही तुम अमान को सह्चाई बता देती तो वो बाखुशी तुम्हे कुबूल का लेता, क्योंकि वो तुम्हे बहुत प्यार करता था. पर तुमने उसके साथ धोखा कर खुद को उसकी निगाहों से गिरा दिया है. अफ़सोस इस बात का है कि तुम्हरी नादानी कि सजा तुम्हरे मासूम बच्चे को झेलनी पड़ेगी और अमान को भी, जिसने तुमसे प्यार करने का गुनाह किया". इतना कह कर मै वहां से चल पड़ी.




Thursday, March 10, 2011

ये लोग - श्रीमती रजनी मोरवाल




शहर की रफ़्तार के मारे हुए हैं लोग |
है ललाटो पर लकीरें 
मुर्दनी मुंह को लगी है,
मंजिलों की चाहतों मैं
खवाहिशें खूंटी टँगी है,

रात-दिन की दौड़ से हारे हुए हैं लोग | 

तंगकूंचों में बसे ये
सीखचों में साँस लेते,
गुर्बतों का दोष सारा
किस्मतों पर लाद देते,

बेबसी से मौन को धारे हुए हैं लोग |

हादसे होते रहे पर
भीड़ तो रूकती नहीं है,
मौत के आगोश में भी
जिंदगी थकती नहीं,

मूक दर्शक से यहाँ सारे हुए हैं लोग | 




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यह ज़िंदगी है क्या ? - श्रीमती रजनी मोरवाल




ज़िंदगी से
एक शाम 
समेटकर 
सोचने बैठी मैं
आज ...........
कि आखिर
यह ज़िंदगी है क्या ?
परिभाषाओं से परे
एक नाम है ?
या मंजिल के बिना
एक अंतहीन सफ़र |
या......फिर यह
एक समुन्दर है,
जिसमें
कहीं मोती हैं ,
तो कहीं ख़ाली
सीपों- सी बजती
एक आशा है |
आख़िरकार
यह ज़िंदगी है क्या ?
नंदनवन है ?
या फिर,
सेमल के फूलों से
लदा एक उपवन ?
जिसमें .........
रंग-ही-रंग हैं
और
ख़ुशबू का
अहसास तक नहीं |


अहसास - श्रीमती रजनी मोरवाल



अहसासों के साये-साये साँझ ढली-सी आई
ख्वाबों ने कलियों को खोले पंखुरियां फैलाई |

शानों पर सर रखकर 
नींदें अलसाई सी जागी,
सिहरन की गलियों में
ख़ुशबू पोर-पोर में भागी,

रेशम की साड़ी कुछ लरजी सिकुडन-सी बल खाई |

लब्ज ठिठक कर थमे रह गए
अधरों के भीतर में,
किन्तु संवेदन मुस्काए
अंगों के अंतर में,

जिस्मों पर लबरेज़ घटाएँ व्याकुल हो मंडराई |

उन्मादित सांसो ने कितने
राज सुनहरे खोले,
लहकी-लहकी काया ने
संवाद अनकहे बोले,

मद्धम-मद्धम शहनाई की स्वर लहरी लहराई | 

लोग अब इस भीड़ में अनजान होकर रह गए - श्रीमती रजनी मोरवाल




लोग अब इस भीड़ में अनजान होकर रह गए
टूटकर बिखरी हुई पहचान होकर रह गए |

बर्फ़ की -सी सिल्लियों के आवरण में सर्द हैं
ठण्ड की चुप्पी लपेटे दायरों में ज़र्द हैं
बस मुल्लमा तानकर अहसान होकर रह गए
लोग अब इस भीड़ में अनजान होकर रह गए |

आइने से झांकते प्रतिबिम्ब कोई और हैं
झूठ की परतें चढ़ाये क्या फ़रेबी दौर है
इस हुज़ुमी वक़्त में हैवान होकर रह गए
लोग अब इस भीड़ में अनजान होकर रह गए |

बस्तियों के बीच कितनी ख्वाहिशें है लुट रही
दंभ की दीवार सबके आंगनों में जुट रही
जिंदगी की दौड़ में अपमान होकर रह गए
लोग अब इस भीड़ में अनजान होकर रह गए |

मेरे ब्लोग पर आज लेखिका के रूप मे रजनी मोरवाल जुड रही हैं. आप एक अध्यापिका के साथ साथ सुलझी हुई सोच की लेखिका है. मैं अपने ब्लोग पर उनका स्वागत करता हूँ. उनका अपना ब्लोग है -     http://www.rajanimorwal.blogspot.com