Wednesday, April 20, 2011

ये क्या है एहसासनुमा सीने में - श्रीमती रजनी मोरवाल


तेरे ख्यालों में बीते हुए
ये बेख्याली से दिन ....
जिनकी सुबह न शाम का
किनारा है कोई |
जब भी थककर के सोई पलकें
ज़रा कुछ लम्हा....
मैने सपनों में भी
दीदार किया है तेरा |
तू न ज़िस्म है, न रूह है
कोई जिंदा सी,
फ़िर ये धड़कता है
क्या एहसासनुमा सीने में ?
जिगर में दफ़न हैं कुछ गम 
छुपी- सी परतों में 
जो हुलस आते हैं 
दर्दों के जाम पीने में |
कभी-कभी सुनती हूँ 
सिसकियों की बातें
 मैं  छुपकर तन्हा,
जो उभर आती हैं 
इन साँसों के पिरोने मैं |
तू वफ़ा है,जफा है ?
या की गुज़रा लम्हा ?
या तेरे छूटे हुए रूमाल में 
घुले हुए इत्र का  फाहा ?
जो हवा के दामन में
टकरा के बिखर जाता है |
या मेरे ही वजूद का
टूटा सा एक हिस्सा है ?
जो कि मिटता भी नहीं
और उभर आता है .....

स्त्री पात्र जिसने शरत को सबसे ज्यादा प्रभावित किया - नीरू दीदी



नीरू दीदी शरत चन्द की एक बहुत ही छोटी कहानी है लेकिन शरत चन्द के नारी पात्रो और उनके मन को समझना हो तो एक दिशासूचक की तरह है. शरत चन्द की कहानियो मे बार बार आने बाले प्रश्न कि क्या ज्यादा महत्वपूर्ण है नारी के जीवन मै सतीत्व या नारीत्व ?

ढाका विश्वविद्यालय ने शरत को ड़ी. लिट की उपाधि लेने के लिए बुलाया तब अन्यो के अलावा बांगला के प्रोफ़ेसर मोहित लाल मजूमदार से उनकी मुलाक़ात हुई और वहा बंकिम से उनके बिरोध पर चर्चा हुई वही बहुत भारी मन से शरत ने नीरू दीदी नाम के चरित्र के बारे में कहा. नारियो के संबंध में हमारे समाज में जो धारणा संस्कार की तरह बद्धमूल है, वह कितना बड़ा झूठ है, इसे मैं जानता हूँ. हमारे समाज में महिलाओं के लिए कितना अविचार है, नित्य उनपर कितने अत्याचार किये जाते है, अगर उन सबकी साहित्य में पुनरावृत्ति हो तो मानवीय दृष्टिकोण से मानव के मूल्य को स्वीकार करने के संबंध में हताश होना पडेगा.

नीरू दीदी ब्राहमण की लड़की थी - बाल विधवा. अपने ३२ बर्ष के जीवन तक उनके चरित्र में किसी प्रकार का कलंक नहीं लगा था. सुशीला, परोपकारिणी, धर्मशीला और कर्मिष्ठा के रूप में पूरे गाव में उसकी ख्याति फ़ैली हुई थी. गाव में शायद ही कोई ऐसा घर था जिसके कभी ना कभी वो काम ना आई हो. लेकिन ३२ बर्ष की अवस्था में उस बाल विधवा का पैर फिसल गया या कहे कि गाव का पोस्ट मास्टर उन्हें कलंकित कर कायरो की तरह भाग गया. यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी. गाव देहात में ऐसी घटना होती ही रहती हैं लेकिन जिस नीरू दीदी ने रोगियों की सेवा, दुखियों को सान्तवना और अभावग्रस्तों की सहायता में कोई क़सर नहीं छोडी उस नीरू दीदी की सारी सेवाओं, स्नेह और आदर सत्कार को निमिष मात्र में भूल गए. समाज ने उनका परित्याग कर दिया और उनसे बात करना भी बंद कर दिया.

लज्जा, अपमान और आत्म ग्लानि से कुछ दिन में ही नीरू दीदी मरणासन्न हो शैयाशायी हो गयी और समाज का कोई व्यक्ति उन्हें एक लोटा पानी तक देने नहीं आया. शरत को भी घर परिवार बालो ने हुक्म दे रखा था कि उनसे नहीं मिले लेकिन बालक शरत सबकी निगाह बचाकर उनकी यहाँ चला जाता था. वो उनको फल ले जाकर खिला आता और उनके हाथ पैर सहला देता लेकिन उस अवस्था में भी उन्होंने समाज के इस पैशाचिक व्यबहार की शिकायत नहीं की. दंड यही समाप्त नहीं हुआ और जब उनका निधन हुआ तब उनकी लाश छूने भी कोई नहीं आया. डोम के द्वारा उनकी लाश नदी किनारे जंगल में फिकवा दी गयी जहां सियार कुत्तो ने मिलकर उसे नोच नोच कर खाया.

ये सब कहानी कहते कहते शरत का गला भर आया और धीरे से कहा -
" मनुष्य ह्रदय में जो देवता है, उसकी हम इस तरह वेइज्जती करते हैं."

शरत ने अपने पूरे साहित्य में ये लड़ाई लड़ी है और किसी भी पतित के चरित्र चित्रण के समय इसीलिये उनके अन्दर बसे देवता की झलक पाने और उसे उजागर करने का कोई अवसर उन्होंने नहीं जाने दिया. शरत की ये कहानी या अनुभव पतित नारियो के प्रति भी उनकी सहृदयता के मूल में है.