Sunday, March 28, 2010

आज है जन्मदिन - प्रसिद्ध गीतकार स्वर्गीय भवानी प्रसाद मिश्रा का










जन्म २९.०३.१९१३    -     निधन २०.०२.१९८५


आज अपने विचारो को निर्भीकता के साथ अपने गीतो मे पिरोने बाले गीतकार भवानी प्रसाद मिश्रा जी का जन्मदिन है. उनकी गान्धीवादी  विचारो मे अटूत आस्था थी. १९५३ से १९८३ के बीच उनकी कुल २२ पुस्तके प्रकाशित हुई  जिनमे बुनी हुई रस्सी प्रमुख है  और इसके लिये उन्हे १९७२ का साहित्य अकादमी पुरुस्कार मिला. अन्य बहुत से सम्मानो के साथ उन्हे भारत सरकार ने पदमश्री से भी विभूषित किया. उनकी प्रमुख रचनाये है गीत फ़रोश, चकित है दुख, गान्धी पन्चशती, अन्धेरी कविताए, बुनी हुई रस्सी, व्यक्तिगत, खुशबू के शिलालेख, परिवर्तन जिए, त्रिकाल सन्धया, अनाम तुम आते हो, इदन मम,  शरीर  कविता फ़सले और फ़ूल, मान-सरोवर दिन, सम्प्रति, नीली रेखा तक.  उनकी याद मे प्रस्तुत है उन्ही का लिखा एक लोकप्रिय गीत. 





गीत फ़रोश 




जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं क़िसिम-क़िसिम के गीत
बेचता हूँ ।

जी, माल देखिए दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा;
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने;
यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलायेगा;
यह गीत पिया को पास बुलायेगा ।
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझ को
पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझ को ;
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान ।
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान ।
मैं सोच-समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।

यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे;
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था ।
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है
यह गीत भूख और प्यास भगाता है
जी, यह मसान में भूख जगाता है;
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर
यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर ।
मैं सीधे-साधे और अटपटे
गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।

जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ ;
जी, छंद और बे-छंद पसंद करें –
जी, अमर गीत और वे जो तुरत मरें ।
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
मैं पास रखे हूँ क़लम और दावात
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ ?
इन दिनों की दुहरा है कवि-धंधा,
हैं दोनों चीज़े व्यस्त, कलम, कंधा ।
कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के
जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के ।
मैं नये पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ ।
जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ ।

जी गीत जनम का लिखूँ, मरन का लिखूँ;
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरन का लिखूँ ;
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का ।
कुछ और डिजायन भी हैं, ये इल्मी –
यह लीजे चलती चीज़ नयी, फ़िल्मी ।
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह दुकान से घर जाने का गीत,
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात ।
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत ।
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ
गाहक की मर्ज़ी – अच्छा, जाता हूँ ।
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ –
या भीतर जा कर पूछ आइये, आप ।
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हूँ  ।
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ ।









डा. कुमार विश्वास आज जोधपुर मे





आज हिन्दी कवि सम्मेलनो के सबसे चर्चित युवा गीतकार डा कुमार विश्वास जोधपुर मे है और शाम को ६ बजे एस एल बी एस कालेज मे उनका कार्यक्रम है. पहले मुलाकात हुई हवाई अड्डे पर फिर राजपूताना होटल के उनके कमरे मे. शाम को उनका कार्यक्रम है. मुलाकात का शेष भाग उसके पश्चात ब्लोग पर लिखेगे.  
उनके स्वागत मे उन्ही का एक नया गीत प्रस्तुत है. 


फिर बसंत आना है
डा. कुमार विश्वास




तूफ़ानी लहरें हों



अम्बर के पहरे हों


पुरवा के दामन पर दाग़ बहुत गहरे हों
सागर के माँझी मत मन को तू हारना
जीवन के क्रम में जो खोया है, पाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है

राजवंश रूठे तो
राजमुकुट टूटे तो
सीतापति-राघव से राजमहल छूटे तो
आशा मत हार, पार सागर के एक बार
पत्थर में प्राण फूँक, सेतु फिर बनाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है

घर भर चाहे छोड़े
सूरज भी मुँह मोड़े
विदुर रहे मौन, छिने राज्य, स्वर्णरथ, घोड़े
माँ का बस प्यार, सार गीता का साथ रहे
पंचतत्व सौ पर है भारी, बतलाना है
जीवन का राजसूय यज्ञ फिर कराना है
पतझर का मतलब है, फिर बसंत आना है