कसमसाया- सा सपन एक ख्वाहिशों में पल रहा था |
शाम के पहलू खड़ा वो सिसकियों मैं घुल रहा था |
दी उसे आवाज़ मैनें
कर इशारा भी बुलाया ,
इस कदर ग़मगीन था वो
पास मेरे आ न पाया ,
आरजू मेरी लिए वो कुछ कदम पर चल रहा था |
आँख में तिनका गिरा था
क्यों पलक उसकी भरी थी ,
आंसुओं के बादलों में
नीर की बदली घिरी थी ,
गैर की मानिंद मुझे वो बन पराया छल रहा था |
रात के पिछले पहर तक
मिन्नतें करती रही में ,
टूटती आहें समेटे
पीर-सी झरती रही में ,
किन्तु जो मेरा कभी था दुश्मनों से मिल रहा था |