Sunday, April 10, 2011

जो मेरा कभी था दुश्मनों से मिल रहा था - श्रीमती रजनी मोरवाल


 



कसमसाया- सा सपन एक ख्वाहिशों में पल रहा था |
शाम के पहलू  खड़ा वो सिसकियों मैं घुल रहा था |

दी उसे आवाज़ मैनें 
कर इशारा भी बुलाया ,
इस कदर ग़मगीन  था वो 
पास मेरे आ न पाया ,

आरजू  मेरी लिए वो कुछ  कदम पर चल रहा था |

आँख में तिनका गिरा था 
क्यों पलक उसकी भरी थी ,
आंसुओं के बादलों में 
नीर की बदली घिरी थी ,

गैर की मानिंद मुझे वो बन पराया छल रहा था |

रात के पिछले पहर तक
मिन्नतें करती  रही में ,
टूटती आहें समेटे
पीर-सी झरती रही में ,

किन्तु जो मेरा कभी था दुश्मनों से मिल रहा था |