Wednesday, August 18, 2010

क्रिकेट के नियम बने खलनायक - सहवाग है असली नायक


वीरेंद्र सहवाग को दाम्बुला में श्रीलंकाई गेंदबाज सूरज रणदीव ने खेल भावनाओं के परे जाकर जानबूझकर नो बाल करके शतक पूरा नहीं करने दिया। सभी ने रणदीव की इस हरकत को बचकाना और अपरिपक्व कहा है और क्रिकेट प्रेमी उनकी इस हरकत पर उन्हें माफी के काबिल नहीं मानते. 
वीरेंद्र सहवाग ने खेल भावना के विपरीत नोबॉल फेंककर उन्हें शानदार शतक से वंचित करने वाले श्रीलंकाई स्पिनर सूरज रणदीव की इस हरकत की आलोचना करते हुए कहा कि इस तरह का व्यवहार अस्वीकार्य है.




सहवाग ने कहा कि अगर सामने खड़ा बल्लेबाज 99 रन पर खेल रहा हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप नो बॉल फेंक दें या फिर बाई के रूप में चार रन दे दें। अच्छी क्रिकेट इसकी इजाजत नहीं देती। महत्वपूर्ण मुकाबले में मैच जिताऊ 99 रन बनाने वाले सहवाग ने कहा कि वह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि उन्हें शतक से वंचित करने के लिए ही नोबॉल फेंकी गई थी.

सहवाग को अपना शतक पूरा करने के लिए १ रन की जरूरत थी और श्रीलंकाई गेंदबाज सूरज रणदीव ने वीरेंद्र सहवाग को इस श्रेया से वंचित करने के लिए गेंद के बल्ले तक पहुचने तक का इंतज़ार नही किया बल्कि जानबूझकर अपने कदम क्रीज से बहुत आगे ले जाकर साफ़ साफ़ नो बाल की जिससे अम्पायर को भी अधिक सोचना नही पड़े.

अब यह घटना तो घट चुकी है लेकिन क्रिकेट के जानकारों के दिमाग में ये प्रश्न घूम रहा है कि क्या ये नियम सही है? जैसा कि अम्पायरो ने तय किया कि नो बाल होते ही भारत को जरूरी रन मिल गया था और खेल ख़तम हो गया. पर क्या ये सब इतना आसान है? नो बाल तो हो चुकी थी. सोचिये,  सहवाग उसे हिट करने क्रीज से बाहर जाते और चूक जाते. क्या सिर्फ इसलिए कि आवश्यक रन बन चुका था और गेंद अपना महत्व खो चुकी थी खेल खाम हो जाता या विकेट कीपर उन्हें  स्टंप करते तो सहवाग आउट नही होते यदि उस समय तक गेंद खेल में है तो सहवाग की हिट की हुई गेंद छक्का लगाने के बाद गिराने के बाद ही डैड मानी जानी चाहिए.


इसी प्रश्न से जुडा एक प्रश्न और भी है जिस पर अब क्रिकेट के जानकार मगजमारी कर रहे है कि जीत के लिए एक रन चाहिए और बल्लेबाह ने हेंड सीमा रेखा से बाहर जाने तक १ रन बना लिया और उसके बाद गेंद सीमा रेखा के बाहर गयी अब बल्लेबाज के खाते में १ रन जुड़ेगा या ४ ?

 और भी ऐसी बहुत सी जटिलताये क्रिकेट के नियमो से जुडी हुई  है और जब कोई ऐसे घटना घटित होती है तब क्रिकेट की शीर्ष संस्था आई सी सी इन पर विचार भी करती है. इसके २ उदाहरण है डेनिस लिली एक बार स्टील का बल्ला लेकर खेलने आ गए और खेले भी उसके बाद ये नियम बना कि बल्ला किस तरह का होना चाहिए ऐसे ही अंडर आर्म गेंदवाजी पर भी रोक ट्रेवर चैपल द्वारा ऐसा किया जाने पर नियम बना कि अंडर आर्म गेंदवाजी नही की जा सकती. 

पहली बार बीनू मांकड़ ने नॉन स्ट्राइकर बल्लेवाज को गेंद फेंकने से पहले ही क्रीज के बाहर जाने पर आउट किया और इस तरह से बल्लेवाज को आउट किये जाने का इतिहास बनाया और इसे जानकार मांकड़ थेओरी कहते है.  तब भी मांकड़ की बहुत आलोचना हुई थी लेकिन वहा बल्लेवाज भी नाहक नाजायज फ़ायदा ले रहा था.   ये नियम कहलाया मांकडेड आउट होना। भारत के महान क्रिकेटर वीनू मांकड़ ने इस तरीके से रन आउट करने की शुरुआत की थी। दिसंबर 1947 में ऑस्ट्रेलिया दौरे पर गई टीम इंडिया का यह किस्सा बहुत मशहूर है।



हुआ यूं कि ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध सिडनी टेस्ट में भारतीय गेंदबाज वीनू मांकड़ ने विपक्षी बल्लेबाज को कुछ ऐसे आउट किया की सब दंग रह गए। मांकड़ ने गेंदबाजी करते हुए क्रीज तक पहुंचकर बिना गेंद फेंके नॉन स्ट्राइकिंग छोर की गिल्लियां बिखेर दीं। कंगारू बल्लेबाज बिल ब्राउन गेंद डाले जाने के पूर्व ही रन लेने की जल्दबाजी में क्रीज छोड़ चुके थे। मांकड़ ने गिल्ली उड़ाते ही रन आउट की अपील की और अंपायर ने उंगली उठा दी।

हालाकि मांकड़ की इस हरकत को ऑस्ट्रेलियाई मीडिया ने खेल भावना के विरुद्ध बताते हुए भर्तसना की पर दिग्गज बल्लेबाज डॉन ब्रेडमेन समेत कुछ विपक्षी खिलाड़ियों ने मांकड़ का बचाव किया। बाद में आउट करने का यह तरीका क्रिकेट के नियमों में शामिल हो गया। और इसका नाम मांकडेड पड़ गया। क्रिकेट नियमों की धारा 42.15 के अंतर्गत मांकडेड को वैधानिक कर दिया गया।

कपिल ने दोहराया इतिहास
भारत के महान कप्तानों में से एक कपिल देव ने भी दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ वनडे में मांकड़ का इतिहास दोहराया था। साल 1993 में हुए इस मुकाबले में कपिल देव ने पीटर कर्सटन को मांकडेड कर दिया था। अब इस मामले मे

रणदेव ने सहवाग से माफी मांग ली है श्री लंका बोर्ड ने भी माफी माँगी है तो ये मुद्दा ख़तम हो जाना चाहिए पर इसने जो सवाल खड़े किये है उनके जवाब अब ढूढे जाने चाहिए. रणदेव बाल करता तो सहवाग आउट भी हो सकते थे या शतक भी पूरा कर सकते थे क्रिकेट ऐसे अगर मगर के कारण ही दिलचस्पी का खेल है, एक शतक की भी उतनी अहमियत नहीं है लेकिन खेल भावना की जब जब हत्या होती है तब दिल को ठेस पहुचती है.

Sunday, August 15, 2010

हिंदी फिल्मों के निराले कवि प्रदीप

कल  है २६ जनवरी और २६ जनवरी  पर एक गीतकार के लिखे फ़िल्मी गीत पूरे भारत में गुंजायमान हो जाते है क्योकि देश भक्ति का अमर गीतकार कह लो या कवि प्रदीप कह लो बात एक ही  है. कवि प्रदीप के गीतों को गा गाकर भारत का लोक तंत्र ६३ साल का हो गया है लेकिन उनके लिखे गीतों का प्रभाव बिल्कुल कम नही हुआ है. एक फ़िल्मी गीतकार होते हुए भी उनके गीतों को जिस तरह आदर और लोकप्रियता दोनों मिली ऐसा संयोग और कही देखने को नही मिलता. बहुत से लोगो को उनके कार्य के लिए भारत रत्न की उपाधि मिली है.  काव्य प्रतिभा के उत्कृष्ट फनकार कवि प्रदीप ने शताब्दियों से गुलामी की बे़डयों में जक़डी एवं पी़डत शोषित हतप्रभ भारतीय जनमानस में छिपी आंतरिक शक्तिस्रोत से उन्हें अवगत करवाकर, उसे जगाने का कार्य अपने अविस्मरणीय गीत लेखन, संगीत एवं गायन के माध्यम से किया और ये कवि प्रदीप ही थे जिन्होंने फिल्मों की ताकत को पहचानकर उसकी क्षमता का स्वतंत्रता आंदोलन एवं अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध ल़डने वालों के समर्थन में किया।

कवि प्रदीप का वास्तविक नाम श्री रामचन्द्र द्विवेदी था। आपका जन्म मध्यप्रदेश के ब़डनगर में ६ फरवरी, १९१५ को  जन्मे कवि प्रदीप का वास्तविक नाम श्री रामचन्द्र द्विवेदी था.  उनकी प्राथमिक शिक्षा मध्य प्रदेश में हुई तथा लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की एवं अध्यापक प्रशिक्षण पाठ्‌यक्रम में प्रवेश लिया। विद्यार्थी जीवन में ही हिंदी काव्य लेखन एवं हिंदी काव्य वाचन में आपकी गहरी रुचि थी और अपनी प्रतिभावान शैली से कवि सम्मेलनों में जन समूह का मन मोह लिया और कवि सम्मेलन से मुंबई के फिल्म उद्योग में चले गए.

सन्‌ १९३९ में बाम्बे टॉकीज के मालिक स्व हिमांशु राय ने कवि प्रदीप की उत्कृष्ट काव्य शैली से प्रभावित होकर उनको ‘कंगन’ फिल्म के लिए अनुबंधित किया, इस फिल्म में अशोक कुमार एवं देविका रानी ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थी। कवि प्रदीप ने सन्‌ १९३९ में ‘कंगन’ फिल्म के लिए चार गाने लिखे, उनमे से तीन उन्होंने स्वयं गाये और सभी गाने अत्यंत लोकप्रिय हुये। इस प्रकार ‘कंगन’ फिल्म के द्वारा भारतीय हिंदी फिल्म उद्योग को गीतकार, संगीतकार एवं गायक के रूप में एक नयी प्रतिभा मिली।

इसके बाद सन्‌ १९४० में निर्माता एस मुखर्जी एवं दिग्दर्शक ज्ञान मुखर्जी की फिल् ‘बंधन’ आयी ‘चल चल रे नौजवान’ जैसे गाने के साथ आपके इस गाने को काफी लोकप्रियता मिली। उस समय स्वतंत्रता आन्दोलन अपनी चरम सीमा पर था और हर प्रभात फेरी में इस देश भक्ति के गीत को गाया जाता था। इस गीत ने भारतीय जनमानस पर जादू सा प्रभाव डाला था। सन्‌ १९४३ में मुंबई की बॉम्बे टॉकीज की पांच फिल्मों ‘अंजान’, ‘किस्मत’, ‘झूला’, ‘नया संसार’ और ‘पुनर्मिलन’ के लिये भी कवि प्रदीप ने गीत लिखे।

देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में शिथिलता आ गई थी। देश के सब ब़डे-ब़डे नेता जेल में बन्द थे। उस समय कवि प्रदीप की कलम से एक हुंकार जगा ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है’ कवि प्रदीप का लिखा यह गीत अंग्रेजी सत्ता पर सीधा प्रहार था, जिसकी वजह से कवि प्रदीप गिरफ्तारी से बचने के लिए भूमिगत हो गये थे। कवि प्रदीप ने स्वतंत्रता से पूर्व एवं स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र निर्माण में जो योगदान दिया वह उनकी देशभक्ति का प्रमाण है।
सन्‌ १९५४ में बनी ‘जागृति’ फिल्म कवि प्रदीप के गानों के लिए आज भी स्मरणीय है वे हैं ः
आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिन्दुस्तान की, इस मिट्‌टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की.
हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्हाल के.
दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल

ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी. . . . . .    साठ के दशक में चीनी आक्रमण के समय लता जी का गाया यह गीत जो कवि प्रदीप द्वारा लिखा गया था कौनसा सच्चा हिन्दुस्तानी भूल सकता है? यह गीत आज इतने वषा] बाद भी उतना ही लोकप्रिय है। इस गीत के कारण भारत सरकार ने आपको ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

कवि प्रदीप ने ‘नास्तिक’ एवं ‘जागृति’ के लिए जो गीत लिखा था स्वयं उन्होंने ही उसे गाया भी था उससे सामाजिक विघटन की एक झलक मिलती हैः ‘देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान, कितना बदल गया इंसान। चांद न बदला सूरज न बदला,कितना बदल गया इंसान।।’ पैगाम’ फिल्म के लिए कवि प्रदीप का लिखा गीत ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा यही पैगाम हमारा’ यह गाना भी काफी लोकप्रिय हुआ था। अपने गीतों के बलबूते पर बॉक्स ऑफिस पर रिकार्ड त़ोड व्यवसाय करने वाली फिल्म थी ‘जय संतोषी मां’ जो कवि प्रदीप के जीवन में एक अविस्मरणीय यशस्वी फिल्म का उदाहरण बनी थी।

कवि प्रदीप को अनेक सम्मान प्राप्त हुए जिनमें ः संगीत नाटक अकादमी अवार्ड १९६१, फिल्म जर्नलिस्ट अवार्ड१९६३ एवं दादा साहब फालके अवार्ड १९९७-१९९८ प्रमुख हैं। खेद का विषय यह है कि ऐसे महान देश भक्त, गीतकार, एवं संगीतकार को भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ से सम्मानित नहीं किया, न ही आज तक उन पर स्मारक डाक टिकट निकला।

आपने अपने जीवन में १७०० गाने लिखे। कवि प्रदीप ८३ वर्ष की आयु में ११ दिसंबर, १९९८ को अपने पीछे अपनी पत्नी तथा दो पुत्रियों को छ़ोडकर इस नश्वर संसार से प्रस्थान कर गये। पर अपने अमर व बेहतरीन गीतों के साथ आज भी वे हम सबके बीच है और सदा रहेंगे।

गीत और अन्य जानकारी  अंतरजाल से ली गयी है. स्रोत की सही जानकारी  जल्दी दे दी जायेगी.