शहर की रफ़्तार के मारे हुए हैं लोग |
है ललाटो पर लकीरें
मुर्दनी मुंह को लगी है,
मंजिलों की चाहतों मैं
खवाहिशें खूंटी टँगी है,
रात-दिन की दौड़ से हारे हुए हैं लोग |
तंगकूंचों में बसे ये
सीखचों में साँस लेते,
गुर्बतों का दोष सारा
किस्मतों पर लाद देते,
बेबसी से मौन को धारे हुए हैं लोग |
हादसे होते रहे पर
भीड़ तो रूकती नहीं है,
मौत के आगोश में भी
जिंदगी थकती नहीं,
मूक दर्शक से यहाँ सारे हुए हैं लोग |
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