तुझे छू भी नहीं पाती हूँ
मैं चलते-चलते मैं यह किस मोड़ तक चली आई
कि पीछे मुड़कर देखूं तो
तेरी परछाईं भी बुझते हुए
चरागों -सी नज़र आती है
हाथ ग़र बढाऊँ तो
तुझे छू भी नहीं पाती हूँ
तुझ तक लौटना चाहूँ तो
कोई राह मुझे मिलती ही नहीं..
कि इन लम्बी काली राहों से निकलते हैं
कई और सिरे,
जिन पर चलकर मैं इस भीड़ मैं खो सी जाती हूँ
कई बार तो साँसे हलक मैं फंसकर दर्द कि हद तक
कराहती हुई रह जाती है
कुछ उलझे हुए रास्तों की दूरी मुझे डराती है,
मेरे पैरों के नीचे से मेरी ज़मीन सरकती जाती है.........
उनमें से एक सिरा है सीधा -सा सपाट -सा ....
मगर उस पर चलकर तुझ तक आऊं ?
क़ि ये भी मेरी फ़ितरत को गवारा नहीं...
तो हर शाम
उस पुराने किले की मीनार को निहारा करती हूँ
जो बहुत ऊँचा है और फ़लक तक फैला रहता है
बस......................
मेरी सोच वहीँ जाकर अटक सी जाती है
किसी पतंग क़ि मानिंद..
बेजान बिना मकसद और
तन्हा -तन्हा अपने आप से बातें करती हुई,
जहाँ से कोई नयी राह निकलती ही नहीं
मैं चलते-चलते मैं यह किस मोड़ तक चली आई
कि पीछे मुड़कर देखूं तो
तेरी परछाईं भी बुझते हुए
चरागों -सी नज़र आती है
हाथ ग़र बढाऊँ तो
तुझे छू भी नहीं पाती हूँ
तुझ तक लौटना चाहूँ तो
कोई राह मुझे मिलती ही नहीं..
कि इन लम्बी काली राहों से निकलते हैं
कई और सिरे,
जिन पर चलकर मैं इस भीड़ मैं खो सी जाती हूँ
कई बार तो साँसे हलक मैं फंसकर दर्द कि हद तक
कराहती हुई रह जाती है
कुछ उलझे हुए रास्तों की दूरी मुझे डराती है,
मेरे पैरों के नीचे से मेरी ज़मीन सरकती जाती है.........
उनमें से एक सिरा है सीधा -सा सपाट -सा ....
मगर उस पर चलकर तुझ तक आऊं ?
क़ि ये भी मेरी फ़ितरत को गवारा नहीं...
तो हर शाम
उस पुराने किले की मीनार को निहारा करती हूँ
जो बहुत ऊँचा है और फ़लक तक फैला रहता है
बस......................
मेरी सोच वहीँ जाकर अटक सी जाती है
किसी पतंग क़ि मानिंद..
बेजान बिना मकसद और
तन्हा -तन्हा अपने आप से बातें करती हुई,
जहाँ से कोई नयी राह निकलती ही नहीं