तेरे ख्यालों में बीते हुए
ये बेख्याली से दिन ....
जिनकी सुबह न शाम का
किनारा है कोई |
जब भी थककर के सोई पलकें
ज़रा कुछ लम्हा....
मैने सपनों में भी
दीदार किया है तेरा |
तू न ज़िस्म है, न रूह है
कोई जिंदा सी,
फ़िर ये धड़कता है
क्या एहसासनुमा सीने में ?
जिगर में दफ़न हैं कुछ गम
छुपी- सी परतों में
जो हुलस आते हैं
दर्दों के जाम पीने में |
कभी-कभी सुनती हूँ
सिसकियों की बातें
मैं छुपकर तन्हा,
जो उभर आती हैं
इन साँसों के पिरोने मैं |
तू वफ़ा है,जफा है ?
या की गुज़रा लम्हा ?
या तेरे छूटे हुए रूमाल में
घुले हुए इत्र का फाहा ?
जो हवा के दामन में
टकरा के बिखर जाता है |
या मेरे ही वजूद का
टूटा सा एक हिस्सा है ?
जो कि मिटता भी नहीं
और उभर आता है .....
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