आँसुओं की बाँह थामे टीस अब बहने लगी है |
जिंदगी के इस तरफ से उस तरफ की दूरियाँ
है सभी चेहरों पे चेहरा, डर कहीं पर औ" हया है
देह की मंडी बज़ारों की कतारों में लगी है
फ़ासिले कम कर न पाई वक़्त की मजबूरियाँ ,
सब्र की साँसें दरकते ज़िस्म में थमने लगी है |
ये कहानी हर किसी की है मगर मौंजू नया है ,
ओढ़कर झूठे नकाबों में हँसी छलने लगी है |देह की मंडी बज़ारों की कतारों में लगी है
चाहतों के नाम पर अब हो रही देखो ठगी है ,
अब नयी ये खेप साँझे सोच में बिकने लगी है |
1 comment:
kya bat he jnab bhtrin bdhaai ho . akhtar khan akela kota rajsthan
Post a Comment