तुम पुरुष हो,
तुम्हे बंधन नहीं स्वीकार्य ?
चाहते हो मुक्त होना
मेरी इच्छाओं से ,
भावनाओं से,
और
अपेक्षाओं से |
मैनें तो तुम्हें मुक्त ही किया है ,
अपनी
अभिलाषाओं से
आकांक्षाओं से
और
कामनाओं से ,
परन्तु..........
तुम ही सदैव
आश्रित रहे
मुझ पर............
लिपटे रहे मेरे
नारीत्व से
ममत्व से
और
आस्तित्व से |
क्या तुम मुक्त कर पाओगे
स्वयं को
मेरी आत्मा से
देह से
और
नेह से ?
क्या मुक्त हो पाओगे....................?
1 comment:
बहुत अच्छी कविता।
इस प्रश्न का जवाब तो ‘नहीं’ ही सूझ रहा है।
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