तुम जब थी तो जीवन में
फूल ही फूल महक रहे थे
मुझे तुमसे प्यार था
ये कभी कह तो नहीं पाया
पर प्यार तुम्ही से था
यह जान लेना कठिन तो नहीं था
स्मृतियों का दर्द दफ़न है सीने में
मेरी हर सांस में तुम हो
मेरी आँखों में जो नेह की चमक
सभी देखते हैं वो तेरे लिए है
इस बात को समझना ये जानना
किसी के लिए आसान तो नहीं था
तुम्हे खोकर में जी रहा हूँ
या मना रहा हूँ मातम जिंदगी का
हर बर्ष इस मातम की सालगिरह आती है
और में खुद से शर्मिन्दा होकर
तुम्हारा अपराधी बना ज़िंदा हूँ
जिन्दगी से ये सब चाहा तो नहीं था
इंदिरा की याद - हरि शर्मा रचित – सोमेश्वर १०.०७.१२
3 comments:
bahut khub
कभी - कभी हम चाहकर भी कुछ कर नहीं पाते है ... पिछली जिन्दगी की यादें बिच्छू की तरह बार -बार डंक मरती रहती हैं और हम निरह बने चुपचाप सब सहने को विवश हो जाते है ..कुछ उलझन ,कुछ मन की पीड़ा ,कुछ अपराध बोथ ..हमें तड़पाता रहता है ..फिर भी हम जीते है ..अपनों के लिए ...अपनों के सपनो के लिए ....
बहुत सुंदर लिखा है ...अपनी सारी पीड़ा शब्दों में उतार दी है आपने .....खुद को तकलीफ देने की यह कोशिश मेरे ख्याल से जायज नहीं है ....खुद को अपराधी मत समझो ...जो हुआ उसे ईश्वर की मर्जी समझकर भूलने की कोशिश करो ....
सुन्दर कविता मगर कौन इंदिरा ?
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