Friday, September 4, 2009

सब जगह बिखरा पडा है




लोग तो परेशान हैं कि
जब घर में घुसो देखो
शयनकक्ष से लेकर के
बाहर की बैठक तक
यहाँ वहां सब जगह
सामान बिखरा पडा है
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रातों में नभ निहारो
निशा की रियासत में
सैनिक बन दमक रहे
तारे हैं टिमटिमा रहे
राजा से चन्द्रमा का
प्रकाश बिखरा पडा है
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दुनिया में घृणा देख
व्याकुल हुआ कवि मन
युद्ध की तो कौन कहे
घरेलू मसलों पर ही
इंसानियत मर रही है
खून बिखरा पडा है
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जीवन भी देखो ना
माटी के पुतले में
साँसों का डेरा है
आस का पखेरू है
उसमें भी सपन मेरा
टूटा बिखरा पडा है
_______________



हरि शर्मा

11 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

और विडंबना देखिए
चाहकर भी हम
नहीं समेट पाते
बिखरे हुए को
और देते हैं
बिखरा जमाने
भर में
सागर को भर
देते हैं गागर से
हम।

Mithilesh dubey said...

मार्मिक भाव से भरा बेहतरिन रचना।.....

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया!!

वाणी गीत said...

माटी के पुतले में..सांसों का डेरा है
दिल को छूती मार्मिक रचना..बहुत शुभकामनायें..!!

Anju (Anu) Chaudhary said...

शब्दों की बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति

गरिमा said...

बहुत सुन्दर लिखा है...

Riya Sharma said...

दुनिया में घृणा देख
व्याकुल हुआ कवि मन
युद्ध की तो कौन कहे
घरेलू मसलों पर ही
इंसानियत मर रही है

सच में ये सब देख कर मन आहत तो ज़रूर होता है

आप का संस्मरण भी पढ़ा....कैसे लगी ये नौकरी
बहुत कुछ नया भी जाना ..मधुशाला के बारे में भी...सुन्दर रचनाएँ !!

श्रद्धा जैन said...

दुनिया में घृणा देख
व्याकुल हुआ कवि मन
युद्ध की तो कौन कहे
घरेलू मसलों पर ही
इंसानियत मर रही है
खून बिखरा पडा है

sab kuch bikhra hua hai
aur sab samet lena chahte hain lekin
kaha mumkin ho paa raha hai

सुशील कुमार जोशी said...

घर से मरी हुई इन्सानियत ही तो चल के दुनिया को बर्बाद करने पर तुली है ।

वाह

Dheerendra Singh said...

wah wah wah wah

Dheerendra Singh said...

wah wah wah wah wah wah