जब जीवन मे़ लगता था
निराशा के घने मेघ
बहा दे़गे सब मेरा
बहा दे़गे सब मेरा
लाख करो कोशिश पर
लगता था हुआ तबाह
निरर्थक हुए सब प्रयास
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खन्जर से छलनी सीना
हो गया लहूलुहान
खुद से विश्वास उठा
होती पीडा महान
लगता था जैसे कि
भूल गया सब अभ्यास
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लेकिन कोई तो है
देख रहा दूर खडा
कौरवी कुचालो़ को
चौसर मे़ हार रहे
पान्डव कुमारो को
शकुनी की चालो़ को
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दुख की काल्री राते
बीत गयी बात गयी
नियति ने पर्दा उठा
कर दिया जयघोश
जीते तुम आर्यपुत्र
ये सब तो माया थी
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आन्खो़ मे़ विस्मय था
मन मे़ अविश्वास सा
लेकिन हम जीते थे
ये ट्राफी जीती तो
ये सबने माना था
सच कितना अपना था
3 comments:
bahut khoobsurat.. bahut man bhavan...baar baar padhane ko man karta hai..
badhayee...aapko hardik badhayee..
वाह !!!! बहुत बहुत बधाई....
मन के गहरे भावों को सुन्दरता से अभिव्यक्त करती बहुत सुन्दर कविता के लिए भी बधाई.....
खूब लिखा है
मन हरि हरि
हो गया।
अवार्ड के लिए बधाई।
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