लोग तो परेशान हैं कि जब घर में घुसो देखो शयनकक्ष से लेकर के बाहर की बैठक तक यहाँ वहां सब जगह सामान बिखरा पडा है _______________ रातों में नभ निहारो निशा की रियासत में सैनिक बन दमक रहे तारे हैं टिमटिमा रहे राजा से चन्द्रमा का प्रकाश बिखरा पडा है _______________ दुनिया में घृणा देख व्याकुल हुआ कवि मन युद्ध की तो कौन कहे घरेलू मसलों पर ही इंसानियत मर रही है खून बिखरा पडा है _______________ जीवन भी देखो ना माटी के पुतले में साँसों का डेरा है आस का पखेरू है उसमें भी सपन मेरा टूटा बिखरा पडा है _______________ हरि शर्मा |
11 comments:
और विडंबना देखिए
चाहकर भी हम
नहीं समेट पाते
बिखरे हुए को
और देते हैं
बिखरा जमाने
भर में
सागर को भर
देते हैं गागर से
हम।
मार्मिक भाव से भरा बेहतरिन रचना।.....
बहुत बढ़िया!!
माटी के पुतले में..सांसों का डेरा है
दिल को छूती मार्मिक रचना..बहुत शुभकामनायें..!!
शब्दों की बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर लिखा है...
दुनिया में घृणा देख
व्याकुल हुआ कवि मन
युद्ध की तो कौन कहे
घरेलू मसलों पर ही
इंसानियत मर रही है
सच में ये सब देख कर मन आहत तो ज़रूर होता है
आप का संस्मरण भी पढ़ा....कैसे लगी ये नौकरी
बहुत कुछ नया भी जाना ..मधुशाला के बारे में भी...सुन्दर रचनाएँ !!
दुनिया में घृणा देख
व्याकुल हुआ कवि मन
युद्ध की तो कौन कहे
घरेलू मसलों पर ही
इंसानियत मर रही है
खून बिखरा पडा है
sab kuch bikhra hua hai
aur sab samet lena chahte hain lekin
kaha mumkin ho paa raha hai
घर से मरी हुई इन्सानियत ही तो चल के दुनिया को बर्बाद करने पर तुली है ।
वाह
wah wah wah wah
wah wah wah wah wah wah
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