माटी का पलन्ग मिला काठ का विछौना
जिन्दगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना
जिन्दगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना
एक ही दुकान मे सजे हैं सब खिलौने
खोटे खरे भले बुरे सावरे सलौने
कुछ दिन दिखे पारदर्शी चमकीले
उडे रंग तेरे अंग हो गए घिनौने
जैसे जैसे बड़ा हुआ होता गया बौना
जिन्दगी मिली के जैसे कांच का खिलौना
मौन को अधर मिले अधरों को वाणी
प्राणों को पीर मिली पीर को कहानी
मौत आये आये चाले ले खुली हथेली
पाव को डगर मिली वो भी आनी जानी
मन को मिला है यायावर मृगछौना
जिन्दगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना।
धरा नभ पवन अगिन और पानी
पांच लेखको ने लिखी एक ही कहानी
एक दृष्टि है जो सारी सृष्टि मे समाई
पांच लेखको ने लिखी एक ही कहानी
एक दृष्टि है जो सारी सृष्टि मे समाई
एक शक्ल की ही सारी दुनिया दीवानी
एक मूठ माटी गयी तौल सारा सोना
जिन्दगी मिली की जैसे कांच का खिलौना
शोर भरी भोर मिली बाबरी दोपहरी
सांझ थी सयानी किंतु गूंगी और वाहरी
एक रात लाई बड़ी दूर का संदेशा
फैसला सुनाके ख़त्म हो गयी कचहरी
ओढ़ने को मिला वो ही दूधिया उढौना
जिन्दगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना
5 comments:
बहुत सुन्दर ! पूरे जीवन का मर्म इस कविता में छिपा है।
घुघूती बासूती
सुन्दर-आभार पढ़वाने का!!
bahut badhia kavita ka sangrah
aap blog me sankalit kar rakhte hain, yahi to hai achchhe kaviyon
ki pahchaan shabdon ko susajjit kar
vyakt karte hain apne bhavon ko
भाई शर्मा जी ! बचपन मे कभी एटा के आत्मप्रकाश शुक्ल जी को मंच पर यह गीत पढते सुना था ..आज इसे आपके ब्लोग पर देखकर स्म्रुतियाँ ताज़ा हो गई ! धन्यवाद ! भवदीय- शरद कोकास
वाह...गंभीर चिंतन युक्त अतिसुन्दर, अद्वितीय गीत....
आनंद आ गया पढ़कर....
आपका कोटिशः आभार इस सुन्दर गीत को पढवाने के लिए...
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