Friday, April 22, 2011

डा. कुमार विश्वास आज जयपुर मे


आज हिन्दी कवि सम्मेलनो के सबसे चर्चित युवा गीतकार डा कुमार विश्वास आज जयपुर मे है  और शाम को तक्षशिला बिजनेस स्कूल में उनका कार्यक्रम है. 
  



उनके स्वागत मे उन्ही का एक गीत प्रस्तुत है. 


सफ़ाई मत देना



एक शर्त पर मुझे निमन्त्रण है सुभगे स्वीकार
सफ़ाई मत देना
अगर करो झूठा ही चाहे, करना दो पल प्यार
सफ़ाई मत देना
अगर दिलाऊं याद, पुरानी मीठी कोई बात
दोष मेरा होगा
अगर बताऊँ , कैसे झेला प्राणो पर आघात
दोष मेरा होगा
मै खुद पर काबू पाउँगा, तुम करना अधिकार
सफ़ाई मत देना
है आवश्यक वस्तु स्वास्थ्य, यह भी मुझको स्वीकार
मगर मज़बूरी है
प्रतिभा के यू क्षरण हेतु भी, मै ही जिम्मेदार
मगर मजबूरी है
तुम फिर कोई बहाना झूठा, कर लेना तैयार
सफ़ाई मत देना

Thursday, April 21, 2011

प्यार की दस्तक - दर्शन कौर धनोए








पता नही मेरी राहे ,तुझ तक पहुंच पाएंगी या नही !
जिन्दगी के मेले में बहुत देर बाद मिले तुम !!


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अपने आप को ख़ुशी का लिहाफ ओढा,
मै खुद को बहुत सुखी समझती रही,
पर तुम्हारी एक प्यार -भरी 'दस्तक' ने
मेरे मोह को तोड़ डाला ,
छिन्न -भिन्न कर डाला ,
तुम्हारा दीवाना- पन !
मुझे पाने की ललक ! 
समर्पण की ऐसी भावना !
मुझे अंदर तक उद्वेलित कर गई ---!
मै कब तक चुप रहती ?
कभी तो मेरी भावनाए --
खुले आकाश में विचरण करने को मचलेगी !
अपने अस्तित्व को नकार कर --
मैने तुम्हे 'हां' तो नही की मगर ,
तुमने एक झोके की तरह ,
मेरी बिखरी जिन्दगी में प्रवेश किया, 
मुझे धरा से उठाकर अपनी पलकों पे सजाया 
मै अपने अभिमान में चूर 
तुम्हे 'न 'करती रही 
और तुम बड़ी सहजता से आगे बढ़ते रहे ---
कब तक ? आखिर कब तक ---
अपनी अतृप्त भावनाओं की गठरी को सम्भाल पाती ,
उसे तो गिरना ही था --
"जिसे चाहा वो मिला नही ?
   जो मिला उसे चाहा नही ?"
इस जीवन-रूपी नैया को ,
बिन पतवार मै कब तक खेऊ ,  
तुम मांझी बन ,मुझे पार लगाओ तो जानू  ?
तुम से मिलकर मेरी हसरते ! उमंगे जवान होने लगी                          
और मै अपने वजूद के ,
एक -एक तिनके को समेटने लगी  -- 
लिहाफ  खुलने लगा है ----------???  

यह गीत हमारी दोस्त ब्लोगर दर्शन कौर धनोए के ब्लोग से लिया गया है. मुम्बई की रहने बाली दर्शन कौर के ब्लोग तक जाने की लिंक ये है. http://armaanokidoli.blogspot.com/

Wednesday, April 20, 2011

ये क्या है एहसासनुमा सीने में - श्रीमती रजनी मोरवाल


तेरे ख्यालों में बीते हुए
ये बेख्याली से दिन ....
जिनकी सुबह न शाम का
किनारा है कोई |
जब भी थककर के सोई पलकें
ज़रा कुछ लम्हा....
मैने सपनों में भी
दीदार किया है तेरा |
तू न ज़िस्म है, न रूह है
कोई जिंदा सी,
फ़िर ये धड़कता है
क्या एहसासनुमा सीने में ?
जिगर में दफ़न हैं कुछ गम 
छुपी- सी परतों में 
जो हुलस आते हैं 
दर्दों के जाम पीने में |
कभी-कभी सुनती हूँ 
सिसकियों की बातें
 मैं  छुपकर तन्हा,
जो उभर आती हैं 
इन साँसों के पिरोने मैं |
तू वफ़ा है,जफा है ?
या की गुज़रा लम्हा ?
या तेरे छूटे हुए रूमाल में 
घुले हुए इत्र का  फाहा ?
जो हवा के दामन में
टकरा के बिखर जाता है |
या मेरे ही वजूद का
टूटा सा एक हिस्सा है ?
जो कि मिटता भी नहीं
और उभर आता है .....

स्त्री पात्र जिसने शरत को सबसे ज्यादा प्रभावित किया - नीरू दीदी



नीरू दीदी शरत चन्द की एक बहुत ही छोटी कहानी है लेकिन शरत चन्द के नारी पात्रो और उनके मन को समझना हो तो एक दिशासूचक की तरह है. शरत चन्द की कहानियो मे बार बार आने बाले प्रश्न कि क्या ज्यादा महत्वपूर्ण है नारी के जीवन मै सतीत्व या नारीत्व ?

ढाका विश्वविद्यालय ने शरत को ड़ी. लिट की उपाधि लेने के लिए बुलाया तब अन्यो के अलावा बांगला के प्रोफ़ेसर मोहित लाल मजूमदार से उनकी मुलाक़ात हुई और वहा बंकिम से उनके बिरोध पर चर्चा हुई वही बहुत भारी मन से शरत ने नीरू दीदी नाम के चरित्र के बारे में कहा. नारियो के संबंध में हमारे समाज में जो धारणा संस्कार की तरह बद्धमूल है, वह कितना बड़ा झूठ है, इसे मैं जानता हूँ. हमारे समाज में महिलाओं के लिए कितना अविचार है, नित्य उनपर कितने अत्याचार किये जाते है, अगर उन सबकी साहित्य में पुनरावृत्ति हो तो मानवीय दृष्टिकोण से मानव के मूल्य को स्वीकार करने के संबंध में हताश होना पडेगा.

नीरू दीदी ब्राहमण की लड़की थी - बाल विधवा. अपने ३२ बर्ष के जीवन तक उनके चरित्र में किसी प्रकार का कलंक नहीं लगा था. सुशीला, परोपकारिणी, धर्मशीला और कर्मिष्ठा के रूप में पूरे गाव में उसकी ख्याति फ़ैली हुई थी. गाव में शायद ही कोई ऐसा घर था जिसके कभी ना कभी वो काम ना आई हो. लेकिन ३२ बर्ष की अवस्था में उस बाल विधवा का पैर फिसल गया या कहे कि गाव का पोस्ट मास्टर उन्हें कलंकित कर कायरो की तरह भाग गया. यह कोई अनहोनी घटना नहीं थी. गाव देहात में ऐसी घटना होती ही रहती हैं लेकिन जिस नीरू दीदी ने रोगियों की सेवा, दुखियों को सान्तवना और अभावग्रस्तों की सहायता में कोई क़सर नहीं छोडी उस नीरू दीदी की सारी सेवाओं, स्नेह और आदर सत्कार को निमिष मात्र में भूल गए. समाज ने उनका परित्याग कर दिया और उनसे बात करना भी बंद कर दिया.

लज्जा, अपमान और आत्म ग्लानि से कुछ दिन में ही नीरू दीदी मरणासन्न हो शैयाशायी हो गयी और समाज का कोई व्यक्ति उन्हें एक लोटा पानी तक देने नहीं आया. शरत को भी घर परिवार बालो ने हुक्म दे रखा था कि उनसे नहीं मिले लेकिन बालक शरत सबकी निगाह बचाकर उनकी यहाँ चला जाता था. वो उनको फल ले जाकर खिला आता और उनके हाथ पैर सहला देता लेकिन उस अवस्था में भी उन्होंने समाज के इस पैशाचिक व्यबहार की शिकायत नहीं की. दंड यही समाप्त नहीं हुआ और जब उनका निधन हुआ तब उनकी लाश छूने भी कोई नहीं आया. डोम के द्वारा उनकी लाश नदी किनारे जंगल में फिकवा दी गयी जहां सियार कुत्तो ने मिलकर उसे नोच नोच कर खाया.

ये सब कहानी कहते कहते शरत का गला भर आया और धीरे से कहा -
" मनुष्य ह्रदय में जो देवता है, उसकी हम इस तरह वेइज्जती करते हैं."

शरत ने अपने पूरे साहित्य में ये लड़ाई लड़ी है और किसी भी पतित के चरित्र चित्रण के समय इसीलिये उनके अन्दर बसे देवता की झलक पाने और उसे उजागर करने का कोई अवसर उन्होंने नहीं जाने दिया. शरत की ये कहानी या अनुभव पतित नारियो के प्रति भी उनकी सहृदयता के मूल में है.

Sunday, April 10, 2011

जो मेरा कभी था दुश्मनों से मिल रहा था - श्रीमती रजनी मोरवाल


 



कसमसाया- सा सपन एक ख्वाहिशों में पल रहा था |
शाम के पहलू  खड़ा वो सिसकियों मैं घुल रहा था |

दी उसे आवाज़ मैनें 
कर इशारा भी बुलाया ,
इस कदर ग़मगीन  था वो 
पास मेरे आ न पाया ,

आरजू  मेरी लिए वो कुछ  कदम पर चल रहा था |

आँख में तिनका गिरा था 
क्यों पलक उसकी भरी थी ,
आंसुओं के बादलों में 
नीर की बदली घिरी थी ,

गैर की मानिंद मुझे वो बन पराया छल रहा था |

रात के पिछले पहर तक
मिन्नतें करती  रही में ,
टूटती आहें समेटे
पीर-सी झरती रही में ,

किन्तु जो मेरा कभी था दुश्मनों से मिल रहा था |