Saturday, May 30, 2009

garmee ke din


पत्तो से पेड़ों के
आती छनकर किरणें
आग सी बरसती है.
मानव की बात दूर
पौधे कुम्हलाते हैं.

चलती है गरम हवा
लू लगने के डर से
घर में छिप जाते हैं.
धूप से पराजित हो
तड़प तड़प जाते हैं.

रुकने की आस लिए
बढते जाते पथिक
छाँव कहीं आगे है
जलते हैं पैर भले
चलते ही जाते हैं.

नीम तले खटिया पर
सोने सी दोपहरी
लेटकर बिताते हैं
चांदी सी रातों में
थककर सो जाते हैं