Friday, September 30, 2011

आओ ना मितवा अभी मन है प्यासा


आओ ना मितवा अभी मन है प्यासा
रुको जब तक हलचल है जीवित है आशा

यमुना का तट था औ कदम्बो की डाली
बिन राधा थे बैठे जहा श्याम खाली
बरनिया के कुंजो मे झूल्र थे हम तुम
उन सखियों से छिपकर मिले भी थे आली

तब पूनम की रातो में संग-संग विचरना
वो फूलो की सेजों पे खुद में सिमटना
वो कंपते से अधरों पे चुम्बन की वर्षा
याद है वो दोनों का एक होकर मिलना

याद है वो स्वप्निल सी भीगी-भीगी राते
तुमने लिखे ख़त और मीठी-मीठी सी बाते
जाओ ना मितवा अभी मौसम है प्यारा
अकेले खेल में झेलूँगा रोज शह और माते

आओ ना मितवा अभी मन है प्यासा
रुको जब तक हलचल है जीवित है आशा

Tuesday, September 27, 2011

अमर शहीद भगत सिह - यादो के चित्र


माटी का पलंग मिला काठ का विछौना - आत्म प्रकाश शुक्ला ( प्रसिद्ध गीतकार )

माटी का पलन्ग  मिला काठ का विछौना
जिन्दगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना



एक ही दुकान मे सजे हैं सब खिलौने
खोटे खरे भले बुरे सावरे सलौने
कुछ दिन दिखे पारदर्शी चमकीले
उडे रंग तेरे अंग हो गए घिनौने
जैसे जैसे बड़ा हुआ होता गया बौना
जिन्दगी मिली के जैसे कांच का खिलौना


मौन को अधर मिले अधरों को वाणी
प्राणों को पीर मिली पीर को कहानी
मौत आये आये चाले ले खुली हथेली
पाव को डगर मिली वो भी आनी जानी
मन को मिला है यायावर मृगछौना
जिन्दगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना।


धरा नभ पवन अगिन और पानी
पांच लेखको ने लिखी एक ही कहानी
एक दृष्टि है जो सारी सृष्टि मे समाई
एक शक्ल की ही सारी दुनिया दीवानी
एक मूठ माटी गयी तौल सारा सोना
जिन्दगी मिली की जैसे कांच का खिलौना

शोर भरी भोर मिली बाबरी दोपहरी
सांझ थी सयानी किंतु गूंगी और वाहरी
एक रात लाई बड़ी दूर का संदेशा
फैसला सुनाके ख़त्म हो गयी कचहरी
ओढ़ने को मिला वो ही दूधिया उढौना 
जिन्दगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना

Monday, September 26, 2011

आज की रात वाहो़ मे़ सो जाइये - प्रसिद्ध गीतकार श्री आत्म प्रकाश शुक्ल






आज की रात वाहो़ मे़ सो जाइये
क्या पता ये मिलन फिर गवारा ना हो
या गवारा भी हो तो भरोसा नही
मन हमारा भी हो मन तुम्हारा भी हो

इस अजाने उबाऊ सफ़र मे़ घडी
दो घडी साथ जी ले़ बडी बात है
भीड से बच अकेले मे़ बैठे़ जरा
हम फटे घाव सी ले़ बडी बात है

गोद मे़ शीश धर चूम जलते अधर
इस घने कुन्तलो मे़ छिपा लीजिये
आचरण के सभी आवरण तोडकर
प्राण पर्दा दुइ का मिटा दीजिये

हाथ धोके पडा मेरे पीछे शहर
लेके कोलाहलो़ का कसैला ज़हर
इसलिये भागकर आ गया हू़ इधर
मेरे मह्बूब मुझको बचा लीजिये

आज की रात तन-मन भिगो जाइये
क्या पता कल किसी का इशारा ना हो
या इशारा भी हो तो भरोसा नही़
मन हमारा भी हो मन तुम्हारा भी हो

इससे पहले मुअज्जन की आये अजान
या शिवालय में गूंजे प्रभाती के स्वर
या अजनबी शहर में उठे चौंककर
दूर से सुन बटोही सुवह का सफ़र

या नवेली दुल्हन से ननद मनचली
हंसके पूछे रही थी कहाँ रात भर
सांस की सीढियों से फिसलती हुई
निर्वसन रात पूछे कहा कंचुकी

आज की रात सपनो में खो जाइए
क्या पता कल नज़र हो नज़ारा ना हो
या नजारा भी हो तो भरोसा नहीं
मन हमारा भी हो मन तुम्हारा भी हो

Friday, September 2, 2011

गृहदाह - शरत का चर्चित उपन्यास और इसकी नायिकाये





शरत चन्द के इस चर्चित उपन्यास मे २०वे सदी के शुरूआत के बंगाल  के सामाजिक परिवेश और  सांस्कृतिक परिदृश्य का परिचय मिलता है. उपन्यास के माध्यम से शरत परम्परागत हिन्दू समाज और ब्रह्म समाज के बीच संघर्ष से परिचय कराते  है. , ग्रामीण रूढीवादी  समाज और सभ्य कहे जाने वाले शहरी जीवन के विश्वास और  मूल्यो के बीच के फ़र्क पर भी उन्लेहोने प्रकाश डाला है. इस उपन्यास मे शरत मानवीय प्रेम, विश्वास और विवाह संस्था की तथाकथित मजबूती पर प्रश्न खडे करते है.

एक कुशल समाज सुधारक के रूप मे शरत इस उपन्यास के माध्यम से ब्रह्म समाज के उदय के वाद बंगाली   समाज मे हो रही सामाजिक-धार्मिक समस्याओ की पहचान करते है. मानवीय सम्बन्धो के यथास्थिति चित्रण के साथ साथ इस उपन्यास मे नाटकीय घटनाक्रम है और बाल सखा महिम और सुरेश के आचरण के आलोक मे इस नाटकीयता की यात्रा आगे बढती है. एक तरफ़ गरीब और मेधाबी महिम है जिसे अपना आत्म सम्मान दुनिया की किसी भी उपलब्धि से अधिक प्यारा है तो दूसरी ओर उसका वालसखा सुरेश है जो कि धनवान और उदार है.

महिम और सुरेश की इस घनिष्ठ मित्रता के बीच अचला आती है जो कि ब्रह्म समाज को मानने बाले परिवार से है. लालन पालन और पढाई लिखाई से आधुनिक है. महिम की बौद्धिक आभा अचला को उसकी ओर खीचती है और उसे महिन की वित्तीय और सामाजिक हालत की कोई परवाह नहीं है. महिम से शादी के बाद अचला शहर के आराम त्यागकर उसके साथ पैतृक गाँव जाती है जहाँ अभाव का साम्राज्य है. गरीबी और रूढियो से परेशान होने पर अचला के लिये अपने प्रियतम पति के साथ रहना बहुत कष्टकारी लगता है. पारिवारिक कलह और मृणाल के साथ महिम के रिश्ते के प्रति शन्का और फिर मनमुटाव के बीच सुरेश का उनके बीच आना, इस सबकी परिणिति  "गृहदाह" के रूप मे होती है.

महिम आग मे जल जाता है और गम्भीर बीमार हो जाता है, सुरेश अपने परोपकारी स्वभाव और महिम  से दोस्ती के कारंण महिम की देखभाल करता है और अचला उसकी सेवा करती है. लेकिन इसी बीच अचला सुरेश की तरफ़ आकर्षित होती है और उसे ये महसूस होना शुरू होता है कि बुद्धिमान होने से कुछ नही होता जब तक कि आदमी सामाजिक और आर्थिक र्रूप से मजबूत नही हो. इस बीच सुरेश के धूर्त दिमाग मे कुछ और ही था और वह योजना बनाकर और धोखा देकर अचला को भगा ले जाता है. अन्त मे अचला अपने पति के पास लौट आती है और हिन्दू मान्यताओ के अनुरूप पति के प्रति समर्पित हो जाती है. उपन्यास का शीर्षक सिर्फ़ उनके जले हुए घर की कहानी नही कहता बल्कि अचला और महिम के बीच जलते हुए रिश्ते की ओर इशारा करता है. .

गृहदाह मे शरत ने २ स्त्री पात्रो का चित्रण किया है. अचला और मृणाल 
अचला
अचला के चरित्र को ठीक से समझने का दावा मै नही कर रहा. लेकिन शरत ने उसे कुलटा नही कहा अभागी कहा है. अभागी इसलिये कि जैसे देवदास अभागा था जो समय पर ये नही समझ पाया कि पारो के बिना उसके लियी जीवन क्या है और बह पारो को कितना प्यार करता है ऐसे ही महिम के सदगुणो से प्रभावित होने पर भी बह ठीक से यह नही जान पायी कि बह महिम से कितना प्यार करती है. अपनी सोच और अपने जीवन के प्रति उसके विचार निश्चयात्मक नही है. वह एक विचारबान महिला है लेकिन लेकिन अपने विचार पर टिकी नही रह पाती.  महिम से विवाह वो अपने पिता की अनिच्छा के वाबजूद करती है लेकिन बाद मे अपने निर्णय से खुश नही रहती. प्यार करते समय गरीबी और अभाव की बातो को नज़रन्दाज़ करने वाली अचला उनका सामना करने पर महिम के वास्तविक गुणो को भी भूल जाती है. शरत इसके लिये दोष अचला को नही बल्कि उस समय के बन्गाली समाज के शहरी और ग्राम्य जीवन के मूल्यो के टकरव को और सामजिक-धार्मिक मत भिन्नता की खाई को इसके लिये जिम्मेदार मानते है.
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मृणाल 
अचला के चरित्र के विपरीत मृणाल एक कम पढी लिखी ग्राम्य महिला है स्वभाव से चुलबुली है. जबरदस्त हास्य बोध है, वेमेल विवाह की अपनी नियति पर कुढती भी है लेकिन अपने धर्म और जिम्मेदारियो के प्रति पूर्णत: सजग है. महिम को कभी पसन्द करती थी और अपने वेमेल विवाह के लिये भी उसे ही जिम्मेदार मानती है. वो एक आस्थावान हिन्दू महिला है और विधवा होने के बाद अपनी नियति से समझौता कर लेती है.