Thursday, February 10, 2011

प्यार का रंग ना बदला - पुन: प्रकाशित



बदल गया है सब कुछ भैया


मगर प्यार का रंग ना बदला




बदली बदली हवा लग रही


बदले बदले लोग बाग़ हैं


बदले बदले समीकरण हैं


बदल गयी है नैतिकता भी


बदले लक्ष्य बदल गए साधन


देखे सभी बदलते हमने


मगर प्यार का रंग ना बदला




फैशन बदले कपड़े बदले


उपर से थोडा नीचे है


नीचे से थोडा ऊंचे है


नीचे ऊपर ऊपर नीचे


इनको देख हुआ जाता है


मेरा मन भी ताथा थैया


मगर प्यार का रंग ना बदला




मंजर बदले आँखे बदली


यात्री बदले मंजिल बदली


आँखों के सब सपने बदले


बदला मौसम आँगन बदले


ओठों के सब गाने बदले


मांझी बदले बदली नैया


मगर प्यार का रंग ना बदला

०००००००००००००

मुलाकात अभी बाकी है




लोग पिया करते हैं मय से भरे प्यालों को, 
मैं वो साकी जिसमें शराब अभी बाकी है.




उम्र बढ़ने से फितरत नहीं बदला करती,
मेरे जीवन में मधुमास अभी बाकी है.




किसी भँवरे ने पिया रस तभी से अब,
कुमुदनी सोचे कित्ती रात अभी बाकी है.




मिलने को मिल भी लिए उनसे हम ना जाने क्यूँ,
ऐसा लगता है मुलाकात अभी बाकी है.

मैं गूंगी हूँ पर गुड का स्वाद मुझे मालूम है,
मेरे ओठों पर गुड का स्वाद अभी बाकी है. 



साथ चलें



बंद करो तकरार मुझे तुम माफ़ करो
जीत गए अब तो अश्को को साफ करो.
तुम से होकर दूर मुझे हिचकी सी आती
दिल की धड़कन अक्सर थम थम जाती.

निकल गए सब कांटे लेकिन घाव हरा
आशंकाओ से मेरा मन रहता डरा-डरा.
किन्तु मन मे फिर भी जीवित आशा है
शायद यही प्रीत की चिर परिभाषा है.

जव वियोग की यह दुपहर ढल जायेगी
तय है मधुर-मिलन - रजनी भी आयेगी.
आओ एक बार फिर हम तुम साथ चलें
गले मिलें हम लेकर हाथो में हाथ चलें.

मै और मेरी जिन्दगी


मै और मेरी जिन्दगी भी
अकसर खेल खेलते है 


कभी मै जिन्दगी के पीचे 
कभी जिन्दगी मेरे पीछे 
कभी लगता है 
बस अब मिल गयी 
लेकिन फिर होती है 
आन्खो से ओझल जिन्दगी


कभी रूठ जाती है जिन्दगी 
कभी मान करती है जिन्दगी
कभी आन्खो मे 
कभी दिल मे 
और कभी आत्मा मे 
प्रवेश करती है जिन्दगी
कभी मुझसे मिलने
मेरे घर आती है जिन्दगी


और जब मिलती है जिन्दगी
तभी खतम हो जाती जिन्दगी

मुझसे ना हिसाब मांगो तुम


गलती हो गई मुझसे ना हिसाब मांगो तुम,
देर हुई अब मैं हिसाब ना दे पाउँगा.

मैं सारा हिसाब रख लेता और जाँच लेती तुम,
अगर जानता अब तक मेरी राह ताकती होगी.

धुएँ का, धूल का, चोटों का, रुसवाई का,
दर्दो का, छालो का, ख्बाबों और खयालो का.

अंधियारों का, अन्देशो का, गुनाहों का, मलालो का,
उदासी का, तकलीफ का, बदहाली और बेबसी का.

लेकिन तुम बतलाओ, ये सब तुमको अगर पता होता,
तब भी क्या ऐसे ही मेरा पथ निहारती तुम.

इसके अलावा याद रखने लायक कुछ भी नहीं,
ऐसे असहाय, असमर्थ और असफल का हाथ थामती तुम.

ना मैं आहें भरुंगा



ना मैं आहें भरुंगा और न मैं आंसू बहाउंगा
तुम्हारी याद आयेगी तो बस इक गीत गाऊंगा

मेरी तन्हाई की दौलत तो मुझसे छिन नहीं सकती
तुम्हारा नाम लेकरके दोस्त जी भर गीत गाऊंगा


तुम्हारी बेवफाई को छुपाकर दिल के लॉकर में
खुशी की ओढ़कर चादर जमाने को दिखाउंगा


भुलाऊं मैं तुम्हें ये तो नहीं मुमकिन मगर फिर भी
जहाँ तक हो सकेगा दर्द ये दुनियाँ से छिपाउंगा


तुम्हें शायद किसी दिन आ जाये बफा मेरी
उसी दिन के लिए जीता रहूंगा, मुस्कराउंगा

समर्पण कर दूंगा


तुम मधु ऋतू मे मिल जाओ एक बार प्रिये
मैं सपनो का संसार समर्पण कर दूँगा

जब मित्र सभी देखा करते उजियारो को
मैंने जीवन मे सिर्फ अँधेरा देखा है
जब चार दिशाओं गूँज रहा है कोलाहल
मैंने जीवन मे एक रूप जग देखा है
तुम हंसी विखेरो घूमो नाचो गाओ प्रिये
मैं जन्मो का श्रृंगार समर्पण कर दूंगा

जब तारे टिम टिम करते चन्दा चमक रहा
मैंने कुटिया मे घुप्प अँधेरा देखा है
जब गली गली मे धूम मच रही होली की
मैंने दर्पण मे धूल सना मुख देखा है
तुम लिए गुलाल हाथ मे आ तो जाओ प्रिये
तेरी इकरंग चुनरी को रंगविरंगी कर दूंगा

जब रास रंग में डूबी यारों की टोली
मेरे ललाट पर सिर्फ विरह की रेखा है
मेरी नैया तो डूब रही मझधार प्रिये
मैंने कब कब दृश्य तटों का देखा है
तुम निज स्वर मे गाओ मेरे गीत प्रिये
मैं जीवन का अभिसार समर्पण कर दूंगा

जब याद आती हो तुम




जब भी मैं ले के बैठता हूं किताबें
तो याद आती हो मुझे तुम,
हर बार किताब रह जाती है
खुली की खुली बिना पढ़ी
मेरे मन के किसी कोने से
फिर यही आवाज आती है
इन किताबों में क्या रक्खा है.


पढना है तो कोई और किताब पढ़ो
किसी के दिल की किताब पढ़ो
किसी के मन की किताब पढ़ो
किसी की सांसों को पढ़ो
और कुछ भी ना पढ़ सको
तो ये कविता ही पढ़ लो
जो लिखी है बस तुम्हारे लिये.


इसे लिखा है आज अभी ही
तुमसे बातें करते हुए
कैसी रही नई कविता ?
वो ये सब पढ़ती है और
हमको जवाब देती है
कविता तो हमने ली सुन
इसमें से आती प्यार की धुन.

कुछ ऐसा भी दिखाओ गुण
तुम वहां कीबोर्ड पर लिखो
मैं यहां पर गाऊं रून-झुन
जवाब जमता है तो ठीक
नहीं तो अपना सिर धुन
मैंने तुझे चुना तू मुझे चुन
हवाए गाने लगी मीठी
धुन.

Monday, February 7, 2011

Ye Kya Hua..(ये क्या हुआ..)

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ये क्या हुआ, क्यों पाँव मेरे डगमगाने लगे हैं,
ना चाहा था जहाँ फिर वहीँ जाने लगे हैं !!

जिसे भुलाने की कोशिश में खुद को भूल आई हूँ,
क्यों फिर आज वो मुझे इतना याद आने लगे है !!

उसकी यादों के जख्म जो नासूर हो गए हैं,
उसके ख्वाब आ कर उन पर मरहम लगाने लगे है !!

इतनी तनहा हूँ मै गुम खामोश अंधेरों में,
अक्स भी अपने आइनों में धुंधलाने लगे है !!

अब आये हैं वो बहार बन कर ना जाने किस लिए,
जब जिंदगी के दरखत से साँसों के पत्ते झड जाने लगे है !!
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Ye Kya Hua, Kyu Paanv Mere Dagmagaane Lage Hai,
Na Chaha Tha Jahan Fir Wahin Jaane Lage Hai..

Jise Bhulaane Ki Koshish Mein Khud Ko Bhool Aayi Hun,
Kyu Fir Aaj Wo Mujhe Itna Yaad Aane Lage Hai..

Uski Yaadon Ke Jakham Jo Naasoor Ho Gaye Hai,
Uske Khwaab Aa Kar Un Par Marham Lagane Lage Hai..

Itni Tanha Hu Mai Gum Khaamosh Andheron Mein,
Aks Bhi Apne Aaino Me Dhundlaane Lage Hai..

Ab Aaye Hai Wo Bahaar Ban Kar Na Jaane Kis Liye,
Jab Zindgi Ke Darkhat Se Saanson Ke Patte Jhad Jaane Lage Hai..
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Sunday, February 6, 2011

पल भर-प्रहर भर (प्रसिद्ध गीतकार आत्मप्रकाश शुक्ल)





पल भर हो भले प्रहर भर हो
चाहे संबंध उमर भर हो
केवल इतनी सी शर्त मीत
हम मिलकर बेईमान ना हो़
जग जो चाहे सो कहे बिम्ब
आईने मे़ बदनाम ना हों।

गत क्या था क्या होगा आगत
मत अन्धकार का कर स्वागत
क्या पता कौन दिन दस्तक दे
सांकल खटकाये अभ्यागत
हम अपनी धरती पर जिये़
यक्ष गन्दर्बों के मेहमान ना हो।

कोई मिल जाता अनायास
लगता प्राणो़ के बहुत पास
फिर वही एक दिन खो जाता
सुधियो़ को दे अज्ञातवास
हम वर्तमान मे़ जिये भूत
या भावी के अनुमान ना हो़।

जगती की कैसी बिडम्वना
इतिहास नही होती घटना
छाया प्रतीत हो जाती है
विश्वास बदल होता सपना
स्वीकारे़ क्षण की अवधि
अनागत सपनो़ के अनुमान ना हो।

पल भर हो भले प्रहर भर हो -----


ये दुनिया आनी जानी है - आत्म प्रकाश शुक्ला ( प्रसिद्ध गीतकार )





धूप को देख ना मुखडा मोड़ छाँव से ज्यादा नाता जोड़
ना हो खोने पाने में मगन उम्र भर कर लम्बी घुड़दौड़
वक़्त की तेज नब्ज पहचान व्यर्थ है सारा गर्व गुमान
नियति तो सबकी फनी है रे दुनिया आनी जानी है।

किसी को कल्पवृक्ष की चाह कीर्ति के कारण कोई तवाह
देह के पीछे बना विदेह भरे कोई सूने मे आग
चतुर्दिक अपनी आँखे खोल देख जी भर ना मुह से बोल
जिन्दगी अथक कहानी है ये दुनिया आनी जानी है

गया जो उसका क्या पछताव ना मिलकर करना कभी दुराव
बहुत बुजदिल होते वो लोग गिनाते जो छाती के घाव
मिला जो सगज उसे स्वीकार व्यर्थ जीना है हाथ पसार
आँख की कीमत पानी है ये दुनिया आनी जानी है

नुमाईश में ले मंडी हाट सभी के अपने अपने ठाठ
बिक रहे रूप रस रंग गंध चले सब अपने अपने घाट
दर्द से करले नैना चार सभी को बाँट बराबर प्यार हाट
एक दिन लुट जानी है ये दुनिया आनी जानी है


सफ़र की सब शर्ते स्वीकार डगर कितनी भी हो दुस्वार
पत्थरो को ठोकर की छूट शूल को चुभने का अधिकार
पो हो जाये लहूलुहान मिले तब मंजिल का ज्ञान
चंद दिन दाना पानी है रे ये दुनिया आनी-जानी है


धुल का कर इतना श्रृंगार प्यार खुद करने लगे कुम्हार
समय सचमुच पागल हो जाये दिशाए देख-देख बलिहार
रेत पर रख दे ऐसे पाँव खोजता रहे समूचा गाँव
धूल ही अमिट निशानी है रे ये दुनिया आनी जानी है



ये  गीत प्रसिद्ध गीतकार आत्म प्रकाश शुक्ल जी के कही सुने गए गीतों से स्मृति के आधार पर लिखा गया है